धन की सारहीनता (कविता) स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु-02-May-2024
सारहीन धन ( कविता) स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु
मूर्ख समझते हैं दुनिया में, धन ही सुख का मूल है। निर्धन जग में व्यर्थ है आया, समझें उसको शूल हैं।। दीन-दुखी हैं बोझ धरा पर, लगता कुछ तो ठीक है। पैसे से कुछ सँवर है जाता , निर्धन से कुछ नीक है।। यज्ञ,दान, धर्म इससे होता, पर कभी-कभी यह बबूल है।। मूर्ख समझते हैं दुनिया में ,धन ही सुख का मूल है।। निर्धन जग में व्यर्थ है आया, समझें उसको शूल हैं।।
सारे रिश्ते यही बिगाड़े, मीत- प्रीत को कर दे खंडित। प्राणों का प्यासा यही बनाता, बिन गलती के कर दे दंडित।। बटमारी का राह दिखाता, डाकू, चोर को बड़ा सुहाता। इसकी भूख से बच जाओ मानव, ना जीने ना मरने देता।। विषधर की यह थैली जैसा, यह बबूल का शूल है। मूर्ख समझते हैं दुनिया में ,धन ही सुख का मूल है।। निर्धन जग में व्यर्थ है आया, समझें उसको शूल हैं।।
मन में जो कल तक खुशियांँ थीं, उन पर यह है ग्रहण लगाता। राग- रंग का बसा था डेरा, इर्ष्या- द्वेष वहांँ बस जाता।। हम कैदी सा जीवन जीते, पूनम का एहसास न आता। अरे बताओ मेरे मित्रों! ऐसा धन भला हमें क्यों भाता? सहसा धरा से पहुंँचे फ़लक पर, ना कोई ऐसा पूल है। मूर्ख समझते हैं दुनिया में ,धन ही सुख का मूल है।। निर्धन जग में व्यर्थ है आया, समझें उसको शूल हैं।।
धन की हमको नहीं ज़रूरत, ऐसा मैं बिल्कुल ना कहती। त्याग, तपस्या, मेहनत से, जो पाया उसमें खुश हूंँ रहती।। पर रिश्तों को रख दूँ ताख पर, अपनापन धूँ-धूँ जल जाए। मानवता की उठ जाए अर्थी, ऐसा धन मुझे कभी न भाए। अतिशय धन जब हो जाता है, विवेक को करता धूल है। मूर्ख समझते हैं दुनिया में ,धन ही सुख का मूल है।। निर्धन जग में व्यर्थ है आया, समझें उसको शूल हैं।।
साधना शाही, वाराणसी
Babita patel
03-May-2024 09:41 AM
Superb
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